
भले ही असम में चुनाव का माहौल है पर ऐसे में एक बड़ा तबका है जिसे राजनीति के रास्ते ही सही लेकिन एक नया विश्वास मिला है। जिस तरह लाखों अप्रवासी भारतीय दुनिया के दूसरे देशों में अपनी भारतीयता के लिए तरसते-तड़पते हैं और धर्म, संस्कृति, भाषा की जड़ों की ओर लौटने नास्टेल्जिया में जीते हैं ठीक वैसे ही छत्तीसगढ़ से मजदूर बनकर असम सहित अनेक राज्यों में जीवन-संघर्ष कर अब वहीं के मूल निवासी बन चुके छत्तीसगढ़ियों में भी तड़प है।
असम से मेरे अनेक छत्तीसगढ़िया मित्र हैं पर उनमें से एक भाई शंकर साहू हैं। आजकल वे लगातार कुछ खबरें और कुछ तस्वीरें भेज रहे हैं। ये चौंकाने वाले हैं। इन खबरों का निचोड़ है कि लाखों असमी छत्तीसगढ़िया फिर से अपने मूल जड़ों की ओर लौट रहे हैं। कांग्रेस की छत्तीसगढ़ में सरकार है और इसके मुखिया हैं श्री भूपेश बघेल। श्री बघेल छत्तीसगढ़ के स्वप्न दृष्टा खूबचंद बघेल जी की तरह सांस्कृतिक अस्मिता, आंदोलन और स्वाभिमान के नवजागरण पर विश्वास करते हैं। इन्हीं बिंदुओं के सहारे वे भारी बहुमत से सरकार बनाकर सांस्कृतिक नवजागरण की क्रांति कर रहे हैं।

बात असम के छत्तीसगढ़ियों की हो रही है। शंकर साहू बताते हैं कि चुनाव की तैयारी को लेकर सैकड़ों कार्यकर्ता और नेता आजकल छत्तीसगढ़ में हैं। वोटों के परिणाम क्या होते हैं यह राजनीतिक विषय है पर जो सांस्कृतिक और भाषाई मितानी हो रही है वह छत्तीसगढ़ी के लिए सुखद है। असम के छत्तीसगढ़ियों की नयी पीढ़ी को अपनी मूल जड़ों की ओर लौटाने वहां के जागरूक छत्तीसगढ़िया कुछ बरसों से प्रयास कर रहे थे। इसके लिए बाकायदा छत्तीसगढ़ सांस्कृतिक केंद्र की स्थापना भी की थी। इधर श्री भूपेश बघेल के सांस्कृतिक नवजागरण की लहर छत्तीसगढ़ से वहां पहुंचते फिजा ही बदल गई है।

आज असम से साहित्यकार डॉ जे आर सोनी ने फोन किया। वे बताते हैं कि सैकड़ों छत्तीसगढ़ी कार्यकर्ताओं के सांस्कृतिक दलों के साथ पहुंचने से आसाम के चाय बागानों में सौंधी खुशबू और स्वाद बिखरने वाले छत्तीसगढ़ियों के जीवन की फिजा बदल गई है। जो लोग छत्तीसगढ़ीपन से अनजान थे उन्हें लग रहा है कि कोई उनका सदियों से बिछड़ा भाई उनसे मिलने आया है, उन्हें जगाने आया है, कह रहा है अपनी धरती लौट नहीं सकते पर असम को छत्तीसगढ़ तो बना सकते हो न।
असम में छत्तीसगढ़ी की यह नवीन दस्तक उन लाखों लोगों को अतीत के सुख-दुख को साझा करने का आह्वान करती है कि जो साहू, कुर्मी, सतनामी और अन्य जातियों के रूप में लगभग बंधुआ की तरह गये थे, वे वहां खालिस छत्तीसगढ़िया हो गये। वहां के लोग बताते हैं कि छत्तीसगढ़िया वहां छत्तीसगढ़िया से विवाह कर लेता है। मारीशस की तरह वहां जातीयता गौण हो गई है। संस्कृति कर्मी अशोक तिवारी और साहित्यकार डॉ परदेशीराम वर्मा तथा डॉ जे आर सोनी ने बहुत कुछ लिखा है वहां से लौटकर। 1830 के आसपास राकेश सतनामी के पूर्वज गये थे। वे भी अपना दुख सुख साझा करते हैं। मिनिमाता के जन्म स्थान होने का गौरव प्राप्त असम में आज अनेक पंथी दल हैं।
आज की तस्वीर कुछ और है, अभी गये सांस्कृतिक दल पंथी के अलावा विवाह गीत, देवार गीत, पंडवानी आदि अलग अलग सांस्कृतिक गुलदस्ता ले कर गये हैं जो असम के छत्तीसगढ़ियों में जिज्ञासा जगा रहे हैं, अपनी जड़ों का जानने का विश्वास भी। मेरे मित्र और असम राष्ट्रभाषा प्रचार समिति के प्रमुख सुशील चौधरी बार बार छत्तीसगढ़ियों की सामाजिक समन्वयता, उदारता, मेहनत आदि का उल्लेख करते रहते हैं।
असम की तरह महाराष्ट्र के मुंबई, नागपुर, पुणे, उत्तर प्रदेश के लखनऊ, इलाहाबाद, दिल्ली, काश्मीर, कोलकोता आदि शहरों और राज्यों में लाखों छत्तीसगढ़िया मजदूर संघर्षपूर्ण जीवन जी रहे हैं। इन्हें भी सांस्कृतिक रूप से जोड़ने की जरूरत है। वे भी अब सांस्कृतिक पुनर्वापसी के लिए किसी चुनाव और श्री भूपेश बघेल का इंतजार कर रहे हैं। अभी हम छत्तीसगढ़ी साहित्य महोत्सव कर रहे हैं और अगली तैयारी अंतरराष्ट्रीय स्तर पर छत्तीसगढ़ियों के बड़े सम्मेलन करने की है।
सांस्कृतिक नवजागरण और छत्तीसगढी अस्मिता- स्वाभिमान के लिए राजनीति से इतर श्री भूपेश बघेल का प्रदेय विशिष्ट है। छत्तीसगढ़ी जानने, समझने और बोलने के प्रति ललक और मजबूरी बढ़ी है तो छत्तीसगढ़ी संस्कृति के प्रति साझेदारी भी। छत्तीसगढ़ी के लिए नये रास्ते खुल रहे हैं तो छत्तीसगढ़ियों के लिए आकाश बढ़ रहा है। हमारी मातृभाषा के प्रति हीनता में तेजी से कमी आ रही है तो गैर छत्तीसगढ़ियों में छत्तीसगढ़ी के प्रति उपेक्षा के भाव कम हो रहे हैं। उन्हें पंडवानी, पंथी और भरथरी के बाद हमारे बोरे-बासी भी सुहा रहे हैं। भोरौं, बांटी और गिल्ली के चेहरों पर मुस्कान बढ़ रही है। यह स्वाभिमान का उन्माद नहीं है, उत्सव है, मड़ई है। असम और छत्तीसगढ़ की महाप्रसादी है। ऐसा ही एक उत्सव हम भी कर रहे हैं। आहू न।
डॉ सुधीर शर्मा