नई दिल्ली:– प्रेग्नेंसी की खबर भर से पूरे घर का माहौल बदल जाता है. भावी माता-पिता को तो आने वाले नये मेहमान की किलकारियां ख्वाबों में भी सुनाई देने लगती है. लेकिन कुछ मामलों में जब प्रेग्नेंसी के दौरान ये पता चल जाए कि भ्रूण (foetus) में डाउन सिंड्रोम है. ऐसे में मानो सब बिखर जाता है. माता-पिता के लिए इससे बुरी खबर शायद ही कोई हो. अब सवाल ये उठता है कि क्या इस तरह के बच्चे को जन्म देना चाहिए, अगर नहीं तो क्यों नहीं? ऐसे में क्या अबॉर्शन संभव है और किन हालातों में कानूनी तौर पर इसे मंजूरी मिली है. आइए जानते हैं.
डाउन सिंड्रोम एक जेनेटिक समस्या है, जिसमें बच्चे के शरीर में क्रोमोसोम की संख्या सामान्य से एक ज्यादा हो जाती है. आमतौर पर हर इंसान के पास 46 क्रोमोसोम (23 जोड़े) होते हैं लेकिन डाउन सिंड्रोम के केस में 21वें क्रोमोसोम की तीन कॉपी हो जाती हैं, जबकि सामान्य तौर पर ये दो ही होती हैं. इसी वजह से इसे ट्रिसॉमी 21 कहा जाता है. यही अतिरिक्त क्रोमोसोम बच्चे के शारीरिक और मानसिक विकास को प्रभावित करता है. इसका असर इंसान की बुद्धिमत्ता, शारीरिक विकास, हृदय या अन्य अंगों पर हो सकता है लेकिन पूरी तरह से जीवन-अक्षम या अमान्य नहीं माना जाता.
गर्भ में डाउन सिंड्रोम का कैसे पता चलता है?
गर्भावस्था के दौरान डाउन सिंड्रोम की जांच कई तरह से होती है. उनमें से कुछ टेस्ट के बारे में यहां आपको बता रहे हैं. ये सभी टेस्ट सरोजनी नगर मेडिकल यूनिवर्सिटी आगरा की सीनियर गाइनकोलॉजिस्ट डॉ निधि से मिली जानकारी पर आधारित हैं.
स्क्रीनिंग टेस्ट (पहली और दूसरी तिमाही में)
पहली तिमाही (11–14 हफ्ते) में डबल मार्कर टेस्ट (खून की जांच) होता है. NT स्कैन (नुकल ट्रांसलूसेंसी अल्ट्रासाउंड, जिसमें बच्चे की गर्दन के पीछे की स्किन की मोटाई देखी जाती है)
दूसरी तिमाही (15–20 हफ्ते) में क्वाड्रपल मार्कर टेस्ट (खून की जांच)होता है. ये टेस्ट बताते हैं कि बच्चे को डाउन सिंड्रोम होने का रिस्क कितना है.
- डायग्नॉस्टिक टेस्ट (पक्का पता लगाने के लिए)
अगर स्क्रीनिंग में रिस्क ज्यादा आता है तो डॉक्टर ये टेस्ट सजेस्ट करते हैं. पहला CVS (कोरियोनिक विलस सैंपलिंग)- जो गर्भावस्था के 10–13 हफ्ते में होता है. दूसरा एम्नियोसेंटेसिस टेस्ट जो गर्भावस्था के 15–20 हफ्ते में होता है. इनसे बच्चे के क्रोमोसोम की सीधी जांच होती है और कन्फर्म हो जाता है कि डाउन सिंड्रोम है या नहीं.
नाक की हड्डी का क्या रोल
रुड़की की स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ शिखा द्विवेदी कहती हैं कि डाउन सिंड्रोम की पहचान में नाक की हड्डी का बड़ा रोल होता है. प्रेग्नेंसी के पहले तिमाही वाले अल्ट्रासाउंड में देखा जाता है कि बच्चे की नाक की हड्डी बनी है या नहीं. ज्यादातर हेल्दी भ्रूण में इस समय तक नाक की हड्डी बन चुकी होती है. लेकिन डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों में अक्सर यह नाक की हड्डी या तो दिखाई नहीं देती या बहुत छोटी होती है.
वो आगे कहती हैं कि इसी कारण नाक न बनने या छोटी होने को डाउन सिंड्रोम का एक अहम सॉफ्ट मार्कर माना जाता है. वैसे सिर्फ नाक की हड्डी न दिखना ही डाउन सिंड्रोम की गारंटी नहीं है, इसे हमेशा NT स्कैन और ब्लड टेस्ट (डबल मार्कर/क्वाड्रपल टेस्ट) के साथ जोड़ा जाता है.
अबॉर्शन कब कानूनी है?
भारतीय कानून में गर्भपात और प्री-नैटल डायग्नोस्टिक्स यानी जन्म से पहले परीक्षण के प्रावधान यहां दिए जा रहे हैं.
MTP एक्ट, 1971 /
सामान्य गर्भपात 20 हफ्ते के गर्भ के लिए दो डॉक्टरों की सहमति से संभव है. इसमें यदि भ्रूण में शारीरिक या मानसिक विकलांगता (physical or mental abnormality) की गंभीर संभावना हो तो कानून गर्भपात की इजाजत देता है.
PCPNDT एक्ट, 1994
प्री-कंसप्शन एवं प्री-नैटल डायग्नोस्टिक टेक्निक्स से जुड़े परीक्षणों को नियंत्रित करता है. इसका उद्देश्य मुख्य रूप से सेक्स चयन (fetal sex determination) और महिला भ्रूण हत्या को रोकना है. साथ ही इसमें आनुवांशिक दोष या क्रोमोसोमल असामान्यताएं (जैसे डाउन सिंड्रोम) का डायग्नोसिस कराने की अनुमति है.
सुप्रीम कोर्ट के कुछ खास डिसिजन
एक मामले में 2017 में सुप्रीम कोर्ट ने एक 37 वर्षीय महिला की उस याचिका को खारिज कर दिया जिसमें उसने मांग की थी कि 26-हफ्ते के भ्रूण के गर्भपात की इजाजत मांगी थी. महिला को 22-हफ्ते पर डाउन सिंड्रोम (ट्रिसोमी 21) का पता चला था. इस मामले में कोर्ट ने कहा कि अब ज्यादा हफ्ते हो चुके हैं और भ्रूण में ‘गंभीर विकलांगता’ का स्तर जो कानून द्वारा मांगा गया है,वो स्थापित नहीं हो सका है. इसके अलावा सुप्रीम कोर्ट ने यह भी कहा कि डाउन सिंड्रोम के बच्चे भी प्यार से जी सकते हैं, कम बुद्धिमत्ता होने के बावजूद अच्छा जीवन व्यतीत कर सकते हैं.
डाउन सिंड्रोम को जन्म देने को लेकर लोगों की अलग अलग राय हैं. जो बच्चे डाउन सिंड्रोम के साथ पैदा होते हैं, उनमें सीखने की क्षमता, शरीर का विकास या लैंग्वेज सीखने आदि में देर होती है. इसके अलावा उन्हें जन्मजात हृदय दोष, श्वसन संबंधी समस्या, थायरॉयड या पेट की गड़बड़ियां, देखने-सुनने से जुड़ी समस्याएं भी हो सकती हैं.
ऐसे में परिवार को देखभाल के लिए अतिरिक्त समय, संसाधन, चिकित्सकीय खर्च, सामाजिक बाधाएं झेलनी पड़ती हैं. उनमें आर्थिक और मानसिक बोझ हो सकता है. माता-पिता के नजरिये देखा जाए तो बच्चे का बुनियादी विकास और जीवन काफी सीमित होता है, ऐसे में कुछ परिवार अबॉर्शन का विकल्प देखते हैं.
डॉक्टरों की अलग राय भी है
कई डॉक्टर कहते हैं कि डाउन-सिंड्रोम वाला बच्चा अक्षम नहीं होता. वो प्यार, स्नेह और मानवीय सामाजिक योगदान करने में सक्षम हो सकता है.ये भी कहा जाता है कि क्या गर्भपात सिर्फ विकलांगता के आधार पर किया जाना चाहिए? क्या यह विकलांग लोगों के अधिकारों के खिलाफ नहीं है?
दिल्ली की सीनियर स्त्री व प्रसूति रोग विशेषज्ञ डॉ सुरभि सिंह कहती हैं कि गर्भ में स्क्रीनिंग और पुष्टि महत्वपूर्ण है, लेकिन निर्णय माता-पिता का है. डॉक्टरों की भूमिका सिर्फ जानकारी देना और विकल्प समझाना है. वो आगे कहती हैं कि अभी भी देश में स्पेशल बच्चों की शिक्षा और लोगों की ट्रेनिंग उस स्तर पर नहीं है कि लोग आसानी से डाउन सिंड्रोम वाले बच्चों का पालन पोषण कर सकें फिर भी ये कठिन डिसीजन माता-पिता ही ले सकते हैं.