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    फिल्म धड़क 2′ में जाति को लेकर ये सब दिखाया गया है जिसकी हो रही चर्चा….

    By adminAugust 11, 2025No Comments4 Mins Read
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    नई दिल्ली:– यह मेनस्ट्रीम की उन गिनी-चुनी हिंदी फ़िल्मों में से एक है, जिन्होंने जाति आधारित भेदभाव, अन्याय और उत्पीड़न जैसे मुद्दों को गहराई और संवेदनशीलता के साथ दिखाया है.

    हालांकि, इसमें सिद्धांत चतुर्वेदी के ‘ब्राउन फ़ेस’ वाले लुक पर काफ़ी बहस और आलोचना हुई है. वह इस फ़िल्म में एक दलित लड़के, नीलेश अहिरवार का किरदार निभा रहे हैं, जो अपनी पहचान को स्वीकारने और समझने की कोशिश में है.

    हालांकि इस विवाद को अलग रख दें, तो फ़िल्म का नज़रिया न तो तरस खाने वाला है और न ही सतही, बल्कि यह वंचित तबके की सच्चाई को ईमानदारी से दिखाती है.

    फ़िल्म में बॉलीवुड वाला भावनात्मक असर और बड़ा सिनेमाई पैमाना तो है ही, साथ ही ये कई विरोधाभासी सच्चाइयों को भी समझाती और दिखाती है. यह विशेषाधिकार प्राप्त तबके को सवालों के घेरे में लाने से नहीं हिचकती.
    जून 2015 में अंग्रेज़ी अख़बार ‘द हिंदू’ की एक स्टडी में पता चला कि 2013-2014 के दौरान रिलीज़ हुई क़रीब 300 बॉलीवुड फ़िल्मों में से सिर्फ छह फ़िल्मों के मुख्य किरदार पिछड़ी जाति से थे.

    इसके उलट, ‘धड़क 2’ में मुख्य किरदार के अलावा भी कई प्रभावशाली किरदार वंचित समुदायों से आते हैं.

    इनमें सबसे प्रभावशाली हैं प्रियांक तिवारी, जो युवा नेता शेखर का किरदार निभाते हैं (यह किरदार रोहित वेमुला से प्रेरित है, जो हैदराबाद विश्वविद्यालय के पीएचडी स्कॉलर थे. वो कैंपस में जातिगत अन्याय के मुद्दे उठाते थे. निलंबन के बाद उन्होंने आत्महत्या कर ली थी.)

    फ़िल्म में शेखर एक जगह पर कहते हैं, “अन्याय क़ानून बन जाए तो उसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठाना लोगों का कर्तव्य है.”

    इसके अलावा अनुभा फतेहपुरा ने नीलेश (मुख्य किरदार) की मां का रोल निभाया है. वो भले ही कमज़ोर स्थिति में हों और विशेषाधिकार प्राप्त लोगों से अपमान झेलती हों, लेकिन इसे चुपचाप सहने वालों में से नहीं हैं.

    उन्हें अपने अधिकारों की पूरी जानकारी है और उन अधिकारों की लड़ाई में वे आरक्षण और समान अवसर जैसे क़दमों पर भरोसा करती हैं.

    जाति का मुद्दा और तमिल सिनेमा
    ‘धड़क 2’ जैसी कहानियां बॉलीवुड में भले ही अपवाद हों, लेकिन भाषाई, ख़ासकर तमिल फ़िल्म इंडस्ट्री में इनका गहरा असर दिखता है. वहां लगातार वंचित तबके के मुद्दों पर फ़िल्में बनी हैं और कई मुख्य किरदार भी इन्हीं समुदायों से लिए गए हैं.

    के. रविंद्रन की तेलुगु फ़िल्म ‘हरिजन’ और बी.वी. करण्थ की कन्नड़ फ़िल्म ‘चोमना डुडी’ दक्षिण की एंटी-कास्ट क्लासिक फ़िल्में मानी जाती हैं.

    समकालीन तमिल सिनेमा में मारी सेल्वराज की ‘कर्णन’ में सुपरस्टार धनुष के ज़रिए वंचित तबके का उबलता गुस्सा सामने आया.

    लीना मणिमेकलई की फ़िल्म ‘मादथी’ में लैंगिक हिंसा की गहरी पड़ताल हुई. पा. रंजीत की ‘सारपट्टा परंबराई’ और टी.के. ज्ञानवेल की ‘जय भीम’ ने मुद्दों को लेकर बहस छेड़ी और बॉक्स ऑफ़िस पर भी अच्छा प्रदर्शन किया.

    तमिलनाडु में आम ज़िंदगी और सिनेमा दोनों में ही जाति एक बड़ा मुद्दा रहा है. यह सामाजिक चेतना वहां के समाज सुधारक और एक्टिविस्ट-राजनेता पेरियार और द्रविड़ राजनीति की विरासत है.

    हाल ही में हुई बातचीत में कहा, “वहां आपको जाति पर कई कहानियां मिलेंगी, जो यहां (बॉलीवुड) नहीं दिखतीं, क्योंकि तमिलनाडु में कई ऐसे फ़िल्मकार आए हैं, जिन्होंने यह संस्कृति बनाई है कि ‘हम यहां हैं और हमारी कहानियां सुनाने से कोई हमें रोक नहीं सकता’. बॉलीवुड में भी ऐसा होना चाहिए.”

    ‘धड़क 2’ दरअसल मारी सेल्वराज की चर्चित तमिल फ़िल्म ‘परीयेरुम पेरुमाल’ का हिंदी एडॉप्टेशन है. उन्होंने इसे उत्तर भारत में सेट किया है और इसे जेंडर के नज़रिए से एक लव स्टोरी के रूप में दोबारा गढ़ा है.

    लोगों का का मानना है कि लव स्टोरी के ज़रिए समाज में मौजूद अलग-अलग तरह के पूर्वाग्रहों और भेदभाव के बारे में बेहद असरदार तरीके से बात की जा सकती है.

    दक्षिण का सिनेमा ज़मीनी हक़ीक़त को गहराई से समझकर बनता है, जबकि बॉलीवुड में यह अक्सर सिर्फ़ एक बनावटी कोशिश जैसा लगता है. हिंदी सिनेमा पर अक्सर पहचान को मिटाने का आरोप लगाया जाता है, जबकि तमिल सिनेमा को हक़ीक़त में जड़ें जमाए रखने के लिए सराहा गया है.

    ख़ासकर 90 के दशक में हिंदी फ़िल्मों में शहरी, ग्लोबल और चकाचौंध भरी ऐसी कहानियां आईं, जो प्रवासी भारतीय दर्शकों को ध्यान में रखकर बनाई गईं और जिनमें वंचित तबके की कोई जगह नहीं थी.

    इस तरह, ज़्यादातर किरदार अपनी पहचान से जुड़े नहीं होते, चाहे वह जाति, वर्ग, धर्म, जेंडर या सेक्सुअलिटी की पहचान हो.

    “असल में सब कुछ पहचान के इर्द-गिर्द ही घूमता है, चाहे वह जातीय पहचान हो, धार्मिक पहचान हो या जेंडर की पहचान. लेकिन हम अपनी फ़िल्मों में इसे छूते तक नहीं हैं.”

    उन्होंने आगे कहा, “अपने रिसर्च के दौरान मुझे समझ में आया कि लोगों को लगता है जाति का मुद्दा सिर्फ गांवों में है, लेकिन बाद में अहसास हुआ कि यह हर जगह है. यही हमारी फ़िल्म की सेंट्रल थीम है कि आप छोटे शहरों से बड़े शहरों में चले जाएं, फिर भी आपकी पहचान आपका पीछा नहीं छोड़ती.”

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