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    गिरफ्तार होने से पहले सीएम सोरेन राज्य की सत्ता अपनी पत्नी को सौंप सकते हैं, जानिए बिना चुनाव लड़े सीएम की पत्नी कैसे बन सकती है मुख्यमंत्री…..

    By adminJanuary 9, 2024No Comments5 Mins Read
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    झारखंड की राजनीति में बड़ा उलटफेर हो सकता है. जमीन घोटाले मामले में मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन के खिलाफ ईडी की कार्रवाई चल रही है. अटकलें लग रही है कि इस मामले में उन पर लगे आरोप सिद्ध हो सकते हैं. जिसका मतलब यह होगा कि सोरेन को मुख्यमंत्री पद से इस्तीफा देकर जेल जाना होगा. इस बीच राजनीतिक गलियारों में चर्चा हो रही है कि गिरफ्तार होने से पहले सीएम सोरेन राज्य की सत्ता अपनी पत्नी को सौंप सकते हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या कानून ऐसा मुमकिन है?मुख्यमंत्री हेमंत सोरेन की पत्नी कल्पना सोरेन सामाजिक कार्यक्रमों में तो नजर आती हैं, लेकिन वो कभी चुनाव का हिस्सा नहींं बनीं. अगर वो सरकार में कोई मंत्री तक नहीं हैं, तो उन्हें प्रदेश का मुख्यमंत्री क्यों माना जा रहा है? कुछ ऐसा ही बिहार की राजनीति में भी हुआ था.

    जब बिहार के पूर्व मुख्यमंत्री लालू यादव ने जेल जाने की आशंका के बीच पत्नी रबड़ी देवी को अपनी गद्दी सौंपी थी. आइए जानते हैं भारतीय संविधान का वो कौन सा नियम है, जो गैर-राजनीतिक व्यक्ति को मुख्यमंत्री बनाने की मंजूरी देता है.कैसे लालू की पत्नी राबड़ी देवी बनी मुख्यमंत्री?एक ऐसा ही मामला 26 साल पहले आया था. जनता दल के अध्यक्ष लालू प्रसाद यादव ने तब सबको चौंका दिया था. जुलाई 1997 में उन्होंने अपनी पत्नी राबड़ी देवी को बिहार का नया मुख्यमंत्री घोषित कर दिया. इससे पहले तक राबड़ी देवी की पहचान केवल लालू यादव की पत्नी के तौर पर होती थी. पांचवीं क्लास तक पढ़ी राबड़ी देवी ने तब तक कोई चुनाव भी नहीं लड़ा था.

    इस सब के बावजूद उन्हें देश के सबसे बड़े राज्यों में से एक बिहार का मुख्यमंत्री बना दिया गया. यह संविधान के अनुच्छेद 164 से मुमकिन हो पाया

    क्या है वो अनुच्छेद 164?अनुच्छेद 164 में राज्य के मुख्यमंत्री और मंत्रिपरिषद की नियुक्ति से संबंधित नियम दर्ज है. यह अनुच्छेद कहता है- (1) मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करेगा. इसके अलावा बाकी मंत्रियों की नियुक्ति राज्यपाल, मुख्यमंत्री की सलाह पर करेगा. (2) राज्य मंत्रिपरिषद राज्य की विधानसभा के प्रति सामूहिक रूप से उत्तरदायी होगा. (3) किसी मंत्री द्वारा अपना पद ग्रहण करने से पहले, राज्यपाल उसको पद की और गोपनीयता की शपथ दिलाएगा. (4) कोई मंत्री अगर निरन्तर छह महीने की अवधि तक राज्य के विधान मण्डल का सदस्य नहीं है तो उस अवधि की समाप्ति पर उसके मंत्री का कार्यकाल भी समाप्त हो जाएगा.

    आसान भाषा में समझें तो अनुच्छेद 164 (1) कहता है कि मुख्यमंत्री की नियुक्ति राज्यपाल करता है. मगर राज्यपाल मनमुताबिक किसी को भी मुख्यमंत्री नियुक्त नहीं करता. चुनाव के बाद, राज्यपाल बहुमत पाने वाली पार्टी को सरकार बनाने के लिए आमंत्रित करता है. जीते हुए उम्मीदवार चुनते हैं कि प्रदेश का मुख्यमंत्री कौन होगा.हालांकि, अनुच्छेद 164 (4) इसमें एक कंडीशन जोड़ता है. यह कहता है मंत्री बनने के लिए जरूरी नहीं कि वो शख्स राज्य के विधानमंडल का सदस्य हो. मगर एक बार इस तरीके से किसी शख्स को मंत्री बनाए जाने के बाद, उस शख्स को 6 महीने की भीतर चुनाव जीतकर राज्य के विधानमंडल का सदस्य बनना पड़ेगा.

    विधानसभा और विधानपरिषद मिलकर विधानमंडल कहलाते हैं. अगर वो शख्स विधानमंडल में अपनी जगह नहीं बना पाता है तो उसे मंत्री पद से इस्तीफा देना पड़ेगा.चुनाव हारने पर भी ममता बनीं मुख्यमंत्रीराज्य की विधानसभा का सदस्य ना होते हुए भी किसी शख्स का मंत्री बनना कोई नई घटना नहीं है. इसका ताजा उदाहरण पश्चिम बंगाल के 2021 चुनाव में देखने को मिला था. इस चुनाव में तृणमूल कांग्रेस की अध्यक्ष ममता बनर्जी नंदीग्राम सीट से चुनाव हार गई थी. हालांकि, उनकी पार्टी चुनाव में बहुमत पाने में कामयाब रही.चुनाव के बाद ममता बनर्जी ने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री की शपथ ली. हालांकि, अभी ममता को अनुच्छेद 164 (4) के तहत 6 महीने के अंदर चुनाव जीतकर विधानमंडल का हिस्सा बनना था.

    इसके लिए मई में पश्चिम बंगाल के कृषि मंत्री शोभनदेब चट्टोपाध्याय ने भबनीपुर विधानसभा सीट खाली कर दी. जिससे ममता बनर्जी के लिए उपचुनाव लड़कर विधानसभा जाने का रास्ता साफ हो गया. ममता बनर्जी उपचुनाव जीत गई और पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री पद पर कायम रहीं.क्या होगा अगर कोई मंत्री चुनाव हार जाएइसी के साथ यह भी जान लेते हैं कि अगर ममता बनर्जी चुनाव हार जाती तो क्या होता. एक ऐसा ही उदाहरण 1970 के दशक में उत्तर प्रदेश की राजनीति में सामने आया था. राजनीतिक उथल-पुथल के बाद त्रिभुवन नारायण सिंह को संयुक्त विधायक दल के नेता के तौर पर 1970 को मुख्यमंत्री पद की शपथ दिलवाई गई थी.

    सदन में उनके समर्थकों की संख्या 257 थी. त्रिभुवन नारायण सिंह उस समय राज्य सभा के सांसद थे. मगर वो उत्तर प्रदेश विधानसभा के किसी भी सदन के सदस्य नहीं थे. अनुच्छेद 164 (4) के तहत उन्हें 6 महीने की अवधि में सदन का सदस्य बनना था.त्रिभुवन नारायण सिंह को यूपी विधानसभा में पहुंचाने के लिए तब योगी आदित्यनाथ के गुरु महंत अवैद्यनाथ ने गोरखपुर में मानीराम की सीट से इस्तीफा दे दिया. रिक्त सीट को भरने के लिए उपचुनाव हुए. त्रिभुवन नारायण सिंह ने इस सीट से विधानसभा उपचुनाव लड़ा. वो अपनी जीत के प्रति इतने आश्वस्त थे कि उन्होंने एक बार भी मानीराम क्षेत्र का दौरा नहीं किया. दूसरी तरफ, प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी उपचुनाव के लिए कांग्रेस के उम्मीदवार के समर्थन में प्रचार करने मानीराम गई थीं.इसका असर चुनाव परिणाम में देखने को मिला.

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