अपने शहर सागर की झील के किनारे बैठकर निर्मल वर्मा की किताब … शब्द और स्मृति पढ़ रहा हूँ , जैसे कोई जलस्रोत नदी में मिल जाने को आकुल हो। ठहरी हुई शब्दों की नौका स्मृति की पतवारों से धीरे-धीरे चलने लगती है। मैं पानी में बहती हुई निर्मल वर्मा की आवाज़ सुन रहा हूँ… हमारे बीच दो ऐसी चीज़ें हैं, जिनके सामने जिन्हें छूकर हम अपने साधारण क्षणों में भी इतिहास की चिरंतनता और प्रकृति… जो शाश्वत है …उसकी ऐतिहासिकता.. दोनों को एक समय में एक साथ अनुभव कर सकते हैं। अजीब बात यह है , ये दोनों चीजें अपने स्वभाव में एक-दूसरे से बिलकुल उल्टी हैं .. एक ठोस और स्थायी , दूसरी सतत प्रवहमान , हमेशा बहने वाली — पत्थर और पानी। दोनों के सम्मुख यह अनुभव होता है कि हम उनके गवाह नहीं , वे हमारे गवाह हैं। हम उनके अस्त्तित्व को नहीं देख रहे , वे हमारे बीतने को देख रहे हैं। यह अनुभव हमारे उस आधुनिक बोध को कितना धक्का देता है , जहाँ हम संसार के साक्षी होने का दम भरते हैं , जबकि हम स्वयं इतिहास से त्रस्त हैं। एक त्रस्त गवाह की गवाही कैसी? वह न इतिहास रच सकता है और न इतिहास का अतिक्रमण कर सकता है , जिससे कविता जन्म लेती है।
विचारशील कथाकार निर्मल वर्मा एक युवा कवि को रिल्के की सलाह की याद दिलाते हैं, आपको प्रकृति की तरफ जाना होगा। दुनिया के आदि पुरुष के समान आपको वह सब कहने की कोशिश करनी होगी , जो आप देखते हैं , अनुभव करते हैं , प्रेम करते हैं , खो देते हैं। 1983 में पहली बार निर्मल वर्मा से मिलते हुए लगा कि जैसे शांत दुपहर में कोई चौड़े पाट वाली नदी हो , जो ऊपर से ठहरी-सी दीखती है पर भीतर ही भीतर बहती रहती है , उसके शांत जल में आकाश धीरे-धीरे डोलता है। सहसा कोई मछली गहराई से ऊपर आकर सूर्य को हिला देती है। निर्मल जी में दूसरों को सुनने और समझने का अपार धीरज था जैसे किसी गहराई में डूबा साधे हों। जब वे कुछ कहने को होते तो पहले गहरी साँस लेते जैसे किसी अतल से अपने को ऊपर उठा रहे हों। फिर उनके शब्दों की उजली धूप हमारे चेहरे पर झिलमिलाने लगती।
वे हमारे घर आते थे। मेरी पत्नी श्यामला उनसे मेरी शिकायत ऐसे करती जैसे अपने ससुर से पति को डाँट पड़वाना चाहती हो। मेरी बेटी दूर्वा अपने बचपन की याद में आज भी निर्मल वर्मा को बसाये हुए है। वह कहती है कि मेरे नमस्कार के जवाब में निर्मल अंकल ने मुझे जिस आत्मीयता से नमस्ते किया , उसमें मुझे अपने प्रति जो सम्मान महसूस हुआ और उनके चेहरे पर जो बच्चों जैसे उज्ज्वल और निश्छल स्नेह की झलक देखी, वैसी तो किसी के चेहरे पर आज तक नहीं देखी।
उनके चेहरे पर गहरी शांति झलकती रहती। जिसकी जड़ उनके भीतर गहराई तक जमी हुई है। पर जीवन के प्रति अवसाद और शोक की रेखाएँ भी छिपती नहीं थीं। यह शांति, अवसाद और शोक मिलकर ही उनकी कहानियों, उपन्यासों और चिंतन को जीवन के प्रति करुणा से भरते रहे। उनके करीब आकर लगता कि वे हमारे दुख के मन को परख रहे हैं। वेदना में डूबी हुई उनकी आँखें किसी के सामने आते ही आत्मीयता से भर उठतीं।
उन्हें पढ़ते हुए यह अहसास बना रहता है कि धरती घूम रही है , उस पर अनेक दिशाओं से जल बह रहे हैं और उन पर धूप के टुकड़े झिलमिला रहे हैं। इनके बिना हमारी स्मृति के आकाश में शब्दों का होना संभव नहीं, हम जो कह रहे हैं, इनके बिना नहीं कह सकते।
निर्मल वर्मा को प्रणति