ध्रुव शुक्ल
भारत के पूर्वज अपने अनुभव से समझाते आये हैं कि मुखिया तो मुख के समान होना चाहिए।जो भले ही सुस्वादु व्यञ्जन अकेले ही ग्रहण करे पर उनके रस से देश के संपूर्ण शरीर का पोषण होना चाहिए। वाणी भी ऐसी बोले जो सबके चित्त को सहयोग और सद्भाव के प्रति उत्सुक करे।
भरतवंशी पूर्वजों ने अपने अनुभव से राज्यकर्त्ताओं को यह भी समझाया कि सेवाधर्म का निर्वाह बड़ा कठिन है। स्वामी के प्रति कर्तव्यपालन और स्वार्थ में बड़ा विरोध होता है।पूर्वजों ने यह भी समझाया कि बैर अंधा होता है और प्रेम को प्रबोध नहीं होता। कौन स्वार्थ के वशीभूत है और कौन निश्च्छल प्रेमी, यह जान पाना दुष्कर है।
तुलसीदास के राम कहते हैं कि जैसे मन में कोई मनोरथ छिपा रहता है, राजधर्म का सार भी इतना ही है। जब देश आज़ाद हुआ तो हम ‘प्रथम सेवक’ के मन में बसे मनोरथ को कहाँ भाँप सके! अब ‘प्रधान सेवक’ के मन में बसे मनोरथ को भाँपना भी कठिन लग रहा है! देश के लोकसेवक स्वामी-धर्म और स्वार्थ के बीच अपनी लोक के प्रति निष्ठा को नहीं साध पा रहे।
जब दावा श्रीराम के प्रति प्रणति का है तो फिर क्यों देश के जीवन से काम, मद और क्रोध विगत नहीं हो पा रहे? क्यों देश के लोग अपने निजप्रभुमय जगत को नहीं देख पा रहे? अगर देख पायेंगे तो फिर विरोध किससे करेंगे? जीतने के लिए अपने मन के अलावा कोई शत्रु संसार में नहीं होता। इस शत्रु को पराजित किए बिना किसी देश के जन अन्याय के प्रतिकार के काबिल नहीं रहते। मन ही तो है जो सेवा और स्वार्थ के बीच के द्वन्द्व को न साध पाने के कारण बैर पालता है पर देशप्रेमी नहीं बन पाता। राम का देश तो जाति-बरन के भेदभाव से मुक्त होना चाहिए। अगर मुहम्मद इक़बाल की नज़रों में राम इमामे हिंद हैं तो यह बात मुसलमानों के मज़हबी और राजनीतिक नेताओं और हिंदुओं के हृदय सम्राटों को अपने जीवन से प्रमाणित करना चाहिए।
देश का अंग-भंग हो रहा है। जहाँ वैष्णव, शैव और शाक्त– तीनों की रणभेरी बज रही है। तीनों संप्रदायों का सत्ताकाँक्षी राजनीतिक संस्करण प्रकट हो रहा है। जैसे दक्षिण में रामेश्वर शिव, उत्तरपूर्व में भगवती कामाख्या और पश्चिम में ‘शक्ति की मौलिक कल्पना’ करने वाले कृत्तिवासी राम चुनाव जीतना चाहते हों!
महाकवि तुलसीदास ने रामचरितमानस में शैव और शाक्त के दो स्तंभों पर पाँच सौ साल पहले वह रामसेतु बाँधा, जिस पर चलकर देश की प्रजा चाहे तो आज भी पार उतर सकती है। नेता पार नहीं उतारेंगे। वे तो प्रजा की नाव में बैठकर पार उतरते ही उसमें और बड़े छेद करते रहेंगे।
बिनु विश्वास भगति नहीं।
तेहि बिनु द्रवहिं न राम।।
राम प्रान प्रिय जीवन जी के।
स्वारथ रहित सखा सब ही के।।