अशोक वाजपेयी
अपने उत्कट क्षणों में कला में अमूर्तन हमें कहीं नहीं के बीच कुछ तक ले जाता है. देश और काल, भूगोल और इतिहास, कुछ देर के लिए सही, स्थगित हो जाते हैं. मनीष पुष्कले अपनी नयी कलाकृतियों में प्रागैतिहासिकता और आधुनिकता के अलग पर लगातार अमूर्तनों के बीच किसी राह की तलाश में भटकते लगते हैं. चित्र कई बार अनजान का नक़्शा बन जाते हैं. जीवन का स्पन्दन और कला की सिवन मानो तदाकार हो गये हैं. बारीक़ियों से आकार उझकते से हैं ऐसा इसरार करते हुए कि वे अप्रत्याशित पर सम्भव हैं. चित्रों की ज्यामितियां स्मृति और आकांक्षा के बीच के तनाव को साधती हुई रेखाओं और रंगों के बीच मूक संवाद का परिसर हैं. अटकल लगाने का मन होता है कि क्या इस तरह संभावना नया रूपाकार ले रही है?
प्रश्नों की एक लड़ी उभरती है:
क्या यह दस्तक है, जिसे हम सुन नहीं देख रहे हैं?
क्या यह निर्जन है, आकृतियों से रिक्त?
क्या यह एकान्त है अपने आकारों के साथ?
क्या यह जो बिखरा हुआ है उसका सुघर विन्यास है?
क्या यह जो पहले किया जा चुका उससे अपसरण है?
क्या यह स्थगन है जिसमें विवक्षा की सम्भावना नहीं?
क्या यह मौन है जो बोलने के पहले की चुप्पी है?
क्या यह रंगों की परतों में छुपा अंधेरा है?
क्या यह रंगों की मंद आभा में उमगता उजाला है?
क्या यह जो है और जो नहीं है उसको जोड़ता है?
क्या यह जो निरन्तर है उसे तोड़ता है?
क्या यह वह है जो चित्रातीत है?
क्या यह वह है जो चित्र में फिर भी आ सकता है?
क्या यह अन्तर्ध्वनियों की जगह है स्पन्दित?
क्या यह सिर्फ़ ध्वनि है स्पन्दन से असम्बद्ध?
क्या ये दरवाज़े हैं जो अपने पर ही खुलते हैं?
क्या दरारों से रोशनी झिर रही है?
क्या दरार नहीं विद्युल्लता है?
क्या यह कृतज्ञता से उपजी रंगप्रणति है?
भले यह उसका ज़रूरी काम नहीं माना जाता, अच्छी और सच्ची कला हमें प्रश्न पूछने की ओर ले जाती है. वह उत्तर देने की कोशिश नहीं करती और न ही आपको अर्थ और अभिप्राय की किसी दिशा की ओर ले जाने की चेष्टा करती या संकेत देती है. एक ऐसे परिवेश में जिसमें चटख़ और बड़बोले सारा ध्यान हर समय खींचते रहते हैं ये चित्र, अपनी गहरी शान्ति, धूसर और फीके रंगों की भाषा में जो कहते-अनकहते हैं, जो दिखाते-छिपाते हैं वह दी हुई सचाई का विस्थापन भी है और अतिक्रमण भी.
अज्ञेय ने कहा था: ‘सभी सर्जन केवल आंचल पसार कर लेना’. शमशेर बहादुर सिंह की एक काव्य-पंक्ति है: ‘शब्द का परिष्कार स्वयं दिशा है.’ मनीष पुष्कले अब आत्मप्रतिष्ठ होकर कला के लिए कन्था बना रहे हैं और अब उन्हें इसकी चिन्ता नहीं है कि दिशा क्या है: कला का परिष्कार स्वयं दिशा है.
अलक्षित जितेन्द्र कुमार
अगर हमारे समय में महत्वपूर्ण पर अलक्षित लेखकों की सूची बनायी जाये तो उसमें जितेन्द्र कुमार का नाम होना अवश्यम्भावी है. उन्होंने अपने साहित्यिक जीवन की शुरूआत पिछली सदी के छठवें दशक में की थी, जब हम कई कविमित्र सागर में नये साहित्य की ओर मुड़कर, अपनी क्षमता और रुचि के अनुरूप कुछ नया करने की एक सामूहिक कोशिश में थे. जितेन्द्र उनमें से एक थे, जीवन में लापरवाह, पर साहित्य में सतर्क और सावधान. मैं तो कविता और आलोचना तक सीमित रहा जैसे अन्य कई कविमित्र भी. पर, जितेन्द्र ने कविता के अलावा कहानी और उपन्यास जैसी विधाओं में भी लिखा. हर विधा में उनके यहां शिल्प का सुगठन है. हर विधा में भाषा को, अनुभव, अवलोकन, मानवीय संबंधों आदि में, वहां ले जाने की कोशिश है, जहां वह पहले जाने से हिचकिचाती रही हो. एक ओर जितेन्द्र के यहां अगर रतजगे की छायाएं हैं तो दूसरी और संबंधों में बेचैनी, हिंसा और नृशंसता तक की अभिव्यक्ति की बेबाकी भी.
अंग्रेज़ी के अध्यापक होने के सिलसिले में जितेन्द्र भारत की कई जानी-अनजानी जगहों पर पदस्थ होते रहे जैसे लखनादौन, पचमढ़ी आदि. लेकिन, रचना में, ऊपर से बैरागी लगते इस लेखक ने गहरी स्थानीयता से लिखा. कविता, कहानी और उपन्यास में विभाजित तीन खण्डों में – ‘ऐसे भी तो सम्भव है मृत्यु’ (कविता), ‘वहीं से कथा’ (कहानी) और ‘नृशंसता’ (उपन्यास) – जितेन्द्र की रचनावली सूर्य प्रकाशन मंदिर बीकानेर ने प्रकाशित की है. रज़ा पुस्तक माला में शामिल निर्मल वर्मा, प्रभात त्रिपाठी आदि कई प्रसिद्ध लेखकों द्वारा प्रशंसित इस रतजगे लेखक की अनुभव-सम्पदा, निर्भीकता, शिल्पगत कसाव, अचूक आत्मालोचन और भद्रता-विरोध पर ध्यान जाना चाहिये.
निर्मल वर्मा ने कहा है कि ‘… हिन्दुस्तान के शहरी रिश्तों के भीतर रिसती हुई किरकिराती-सी तपिश, इस तपिश को उछालने की विभिन्न और विचित्र भंगिमाएं, इन भंगिमाओं के सहारे अपने भीतर की ईमानदारी खोजने की कोशिश, और स्वयं इस कोशिश की निरर्थक हताशा, मेरे लिए ये सब उस डिप्रेशन के महीन धागे हैं, जिनसे जितेन्द्र अपनी दुनिया का तन्तुजाल बुनते हैं.’ प्रभात त्रिपाठी को लगता है कि ‘… उसकी बोल्डनेस और आक्रामकता की चर्चा तो एकाधिक बार हुई है, उसके प्रेम के अधिक संस्कारी सन्दर्भों को एकदम ही भुला दिया है.’ कविता-खण्ड की अंतिम कविता है:
विश्वास
मुझे अपने मित्रों पर विश्वास करना चाहिये था
वह नहीं किया
अपने कबाड़ के बियाबान में फंसा रहा
मेरी पत्नी मेरे मुड़कर देखने की प्रतीक्षा कर रही थी
कि मैं देखूं कि वह क्या अनमोल कर रही थी
मुझे अपने कबाड़ से ही फुर्सत नहीं थी.
उसने सहज भाव प्रतीक्षा की
मेरा बेटा उत्तरी ध्रुव फ्रंट पर
अपनी लड़ाइयां अकेले लड़ रहा था
मेरे हृदय में एक बादल था
वह डाल पर छाते की तरह टंगा था
क्षितिज पर बारिश हो रही थी
उसने मुझे दिखाया उसकी सीधी रेखाएं
बादलों से एक साथ गिर रही थीं
चाक-खिंची रेखाएं
हवा में धरती की गन्ध थी.
उन अंधेरे ठिठुरते दिनों में
मैं अपना एक दूर देश रच रहा था.