आज हिंदी रंगमंच दिवस है। आज ही के दिन 3 अप्रेल 1868 को हिंदी के पहले नाटक लेखक : शीतला प्रसाद त्रिपाठी की “जानकी मंगल” का प्रदर्शन बनारस में हुआ था। इस नाटक में लक्ष्मण की भूमिका भारतेन्दु हरिश्चन्द्र ने की थी । 1975 में संगीत नाटक अकादमी ने इस दिन को विश्व हिंदी रंगमंच दिवस के रूप में मनाने का निर्णय लिया।
तीन अप्रैल 1868 की शाम। पूरे बनारस में गहमागहमी का माहौल। शहर के बड़े-बड़े सेठ, साहित्यकार, कलाकार, बुद्धिजीवी, देशी-विदेसी हाकिम, सैन्य अधिकारी, पहुंच वाले लोग, पंडित, विद्वान सभी की सवारियां, बग्घियां, इक्के-तांगे आदि कैंटोनमेंट के असेंबली रूम की ओर चले जा रहे थे। सभी में उत्सुकता थी, महाराज बनारस द्वारा आयोजित नया तमाशा थियेटर देखने की। उसी दिन भारत में पहली बार शीतला प्रसाद त्रिपाठी कृत हिंदी नाटक जानकी मंगल का मंचन हुआ। इसी आधार पर बाद में तीन अप्रैल को हिंदी रंगमंच दिवस घोषित किया गया।
जून 1967 में आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने हिंदी साहित्य का इतिहास में पहली बार इस नाटक के मंचन को प्रमाणिक तौर पर पुष्ट किया। इंग्लैंड के एलिन इंडियन मेल के आठ मई 1868 के अंक में भी उस नाटक के मंचन की जानकारी भी प्रकाशित हुई थी। इसी आधार पर पहली बार शरद नागर ने ही हिन्दी रंगमंच दिवस की घोषणा तीन अप्रैल को की थी।

हिंदी रंगमंच की स्थापना में सबसे महत्वपूर्ण भूमिका तत्कालीन काशी नरेश ईश्वरीनारायण सिंह ने निभाई। उन दिनों नाट्य क्षेत्र में ब्रितानी माडल ज्यादा प्रभावी थे। काशी की पारंपरिकता, आधुनिकता के दबाव से बचने की कोशिश में बीच का रास्ता खोज रही थी। तब आगे आए काशी के महाराज ईश्वरी प्रसाद नारायण सिंह। उन्होंने अपने दरबारी कवि गणेश को इस पर काम करने को कहा। गणेश ने जो नाटक लिखा वह पारंपरिक और छंदबद्ध था। महाराज संतुष्ट नहीं हुए। वह ऐसी परंपरा शुरू करना चाहते थे जो अंग्रेजी नाट्य प्रस्तुति का मुकाबला कर सके। तब उन्होंने यह जिम्मेदारी सौंपी पंडित शीतलाप्रसाद त्रिपाठी को। उन्होंने शास्त्रीय संस्कृत नाटक, पारंपरिक रामलीला और यूरोपीय नाट्य तत्वों को मिलाकर जानकी मंगल तैयार किया। बाबू उश्वर्यनारायण प्रसाद सिंह ने रामलीला के कलाकारों संग रिहर्सल शुरू किया। प्रस्तुति का स्थान चुना गया कैंटोनमेंट का असेंबली रूम्स एंड थियेटर। बाद में इसे रायल थिएटर के नाम से भी जाना गया।
प्रस्तुति के ऐन पूर्व लक्ष्मण बनने वाला लड़का बीमार पड़ गया। नाटक स्थगित होने की नौबत आ गई। तभी 18 वर्षीय युवा हरिश्चंद्र वहां पहुृंचे। उन्होंने लक्ष्मण की भूमिका करने को कहा। महाराज ने संवाद याद होना असंभव बताया तो उन्होंने घंटे भर में याद कर सुना दिया। फिर नाटक खेला गया। भारतेन्दु के मन में हिंदी नाटक लेखन और उसके अभिनय का उत्साह जगा और उन्होंने खुद नाटक लिखना शुरू कर दिया। अपना नाट्य दल भी बनाया। जिसमें राधाकृष्ण दास, रविदत्त शुक्ल, दामोदर शास्त्री, पं. चिंतामणि, पं. माणिक लाल जोशी आदि थे। उन्होंने वाराणसी और बलिया के ददरी मेले में नाट्य प्रस्तुतियां दीं। इसके बाद तो काशी में नाटक करने के लिए नाट्य संस्थाओं का बनना आरंभ हो गया।