राजस्थान:- राजनीतिक पर्यवेक्षकों का एक समूह मान चुका है कि पूर्व मुख्यमंत्री वसुंधरा राजे को अब नई सरकार की कमान सौंपे जाने की संभावनाएं नगण्य हैं.
इसके प्रतिकूल पर्यवेक्षकों का एक वर्ग मानता है कि लोकसभा चुनावों और प्रदेश की 25 सीटों को जीतने के लक्ष्य को पूरा करने के लिए उन्हें एक बार फिर नेतृत्व सौंपा जा सकता है. यही वह कारण है, जिससे वसुंधरा राजे के समर्थक नाउम्मीद नहीं हैं.
लेकिन इसके बावजूद प्रदेश के नाज़ुक मिज़ाज सियासतदानों में अब यह संभावनाएं भी टटोली जा रही हैं कि वसुंधरा राजे मुख्यमंत्री नहीं बनती हैं तो फिर क्या-क्या हो सकता है?
आख़िर उनके सरकारी आवास पर तीन दिन से लगातार नवनिर्वाचित विधायकों का आना-जाना लगा हुआ है.सीएम नहीं तो और क्या?
मीडिया में चल रहा है कि वसुंधरा राजे को 70 विधायकों का खुला समर्थन है. लेकिन क्या वाक़ई ऐसा है? और अगर ऐसा है तो इसके क्या मायने हैं?
जानकारों का मानना है कि यह सब मीडिया की कहानियां हैं और हाईकमान को ताक़त दिखाने जैसी कोई बात नहीं है. लेकिन कुछ दूसरे लोग मानते हैं कि सियासत में इस तरह के संकेतों के भी अपने मायने हैं.
सियासी सवालों की इसी फ़ेहरिस्त में एक सवाल ये भी है कि वसुंधरा राजे अगर मुख्यमंत्री नहीं बनीं तो क्या उन्हें विधानसभा अध्यक्ष बनाया जाएगा? जैसा कि काँग्रेस सरकार में मुख्यमंत्री पद के दावेदार सीपी जोशी को इस बार विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया था.
इससे पहले जब 1977 में महारावल लक्ष्मण सिंह मुख्यमंत्री नहीं बन पाए और इस पद के लिए हुए सियासी संघर्ष में भैरो सिंह शेखावत क़ामयाब रहे. तो महारावल को विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया.
1990 और 1993 में शेखावत के नज़दीकी प्रतिद्वंद्वी हरिशंकर भाभड़ा थे. भाभड़ा मुख्यमंत्री नहीं बन सके तो उनके कद को देखते हुए उन्हें दोनों बार विधानसभा अध्यक्ष बनाया गया.
विधानसभा अध्यक्ष ऐसा पद है, जिसके सामने मुख्यमंत्री और पूरा मंत्रिमंडल तो नतमस्तक रहता ही है, राज्य की ब्यूरोक्रेसी पर भी उसकी पूरी पकड़ रहती है.
अशोक गहलोत के दूसरे मुख्यमंत्री काल में विधानसभा अध्यक्ष दीपेंद्र सिंह शेखावत अक्सर ही सरकार के प्रमुख नौकरशाहों को तलब किए रहते थे.
