कोई बताये कि किस धर्मग्रंथ में रावण को बुराई का प्रतीक निरूपित किया गया है। वह तो उसी प्रकृति से जन्मा है जिससे सब जन्म लेते हैं। प्रकृति की अँगनाई में युधिष्ठिर और दुर्योधन, दोनों ही जन्म ले सकते हैं। मनुजरूप राम और लीला पुरुषोत्तम कृष्ण भी सदोष आदर्श होकर भारतीय समाज की श्रद्धा के पात्र हैं। इस संसार में कोई निर्दोष आदर्श स्थापित नहीं किया जा सकता। मनुष्य एक-दूसरे को सदोष स्वीकार करके और पंच तत्वों को उन्नत बनाये रखकर ही परस्पर सहकार में जी सकता है।
यह संसार गुड़-गोबर से सना हुआ है। इसमें बसी आग राम और रावण, दोनों को चलाती है। किसान इस सच्चाई को अच्छी तरह पहचानते हैं। वे गोबर की खाद बनाकर खेत में डाल देते हैं फिर गन्ना बोते हैं और गोबर को गुड़ बना लेते हैं। जिन्हें यह खाद बनाना नहीं आता, पराभव उन्हीं का होता है। बुराई जीती नहीं जाती, उसकी खाद बनाकर उसे अपनाना पड़ता है। राम भी रावण को इसी तरह अपनाते हैं। रामायण शायद यही सिखाती है कि हम किसी का स्वभाव नहीं बदल सकते और फिर भी उसे अपना सकते हैं।
आज किसानों को अपनी फसलें उगाने के लिए जहरीले समझौते करना पड़ रहे हैं। अन्न ब्रह्म को अपने खेतों में अँकुरित करने वाले किसान अपने देसी खाद की कला कैसे भूल गये? राजनीति और बाज़ार के कुटिल गठबंधन ने हमारे किसानों को ज़मीन में जहर बोने के लिए विवश किया है। साधु कहलाने वाले लोग बहुराष्ट्रीय कंपनियों से सौदा करके आर्गेनिक खेती का मँहगा धंधा करके मुनाफा कमा रहे हैं। नेता अपने फार्म हाउस में आर्गेनिक फसलें उगाकर स्वस्थ-सानंद नज़र आते हैं। व्यापारी भी जहर बेचकर मालामाल हो रहे हैं। उसे खुद नहीं खा रहे और देश के जीवन की नसों-नाड़ियों में जहर घुलता जा रहा है। लोग कभी-कभार गुस्से से भरकर बुराई के पुतले जलाते हैं पर बुराई कहाँ मिटती है?
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