नई दिल्ली:– महाविकास अघाड़ी ने महायुति को पछाड़कर शानदार सफलता हासिल की है.इन नतीजों का राज्य की राजनीति पर दूरगामी असर पड़ेगा. आइए समझते हैं, उन कारणों को जो महाराष्ट्र की राजनीति को एक नई दिशा देते हैं.लोकसभा चुनाव 2024 के नतीजे आ गए हैं. सत्तारूढ़ बीजेपी को बहुमत नहीं मिला और इस वजह से राज्य के साथ-साथ देश की राजनीति की तस्वीर बदल गई है या बदलने लगी है.
यह राष्ट्रीय स्तर पर एनडीए और इंडिया गठबंधन और महाराष्ट्र में महायुति और महाविकास अघाड़ी के बीच सीधी लड़ाई थी.
बीजेपी के नेतृत्व वाले राष्ट्रीय जनतांत्रिक गठबंधन यानी एनडीए को 293 सीटें और इंडिया गठबंधन को 233 सीटों पर जीत मिली है.
महाराष्ट्र की कुल 48 लोकसभा सीटों में से 17 सीटें महायुति और 30 सीटें महाविकास अघाड़ी ने जीती हैं. महाराष्ट्र में बहुत कड़ा मुक़ाबला हुआ है. दरअसल, हाल के दिनों में महाराष्ट्र में ऐसी कांटे की टक्कर कम ही देखने को मिली थी.
महाराष्ट्र में महायुति और महाविकास अघाड़ी के बीच सीधी लड़ाई हुई. वंचित अघाड़ी भी मैदान में थी लेकिन एक भी सीट नहीं जीत सकी.
महाराष्ट्र में विदर्भ, मराठवाड़ा, पश्चिम महाराष्ट्र और मुंबई में महाविकास अघाड़ी का काफ़ी विस्तार हो चुका है.
मुंबई में भी शिव सेना ने सबसे अधिक सीटें जीतीं, इसलिए इसका प्रभाव आगामी विधानसभा चुनाव और नगर निगम चुनावों में दिखाई देगा.
इस चुनाव में कांग्रेस ने विदर्भ का गढ़ फिर से हासिल कर लिया है जबकि शरद पवार की एनसीपी पश्चिमी महाराष्ट्र में अपना गढ़ बचाने में कामयाब रही है.
ज़ाहिर है 2019 के लोकसभा चुनाव में 41 सीटें जीतने वाले महायुति को सिर्फ़ 17 सीटों से ही संतोष करना पड़ेगा. महाविकास अघाड़ी ने ज़ोरदार प्रदर्शन करते हुए 30 सीटों पर जीत हासिल की है.
इस साल के लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र में जो प्रमुख बातें देखने को मिलीं, उनमें से एक है महायुति के तीन केंद्रीय मंत्रियों समेत कई दिग्गज उम्मीदवारों की हार.
राज्य में जहां बीजेपी की ताक़त घटी है, वहीं कांग्रेस की ताक़त बढ़ी है. हिंदुत्व पर केंद्रित रही महाराष्ट्र की राजनीति में अब गठबंधन राजनीति का प्रभाव बढ़ने जा रहा है.
लोकसभा चुनाव से पहले महायुति एकजुट दिख रही थी जबकि महाविकास अघाड़ी एकजुट रहने के लिए संघर्ष कर रही थी. दरअसल, महाविकास अघाड़ी ने एकजुट होकर इस चुनाव का सामना किया जबकि चुनाव से पहले महायुति में काफ़ी असमंजस की स्थिति थी.
2014 और 2019 की तुलना में इस साल लोकसभा चुनाव में महाराष्ट्र की तस्वीर पूरी तरह से बदल गई है. पिछले लोकसभा चुनाव की तुलना में भारतीय जनता पार्टी के नेतृत्व में एनडीए अपना प्रदर्शन दोहरा नहीं पाई है. ऐसा तब है जब बीजेपी ने कांग्रेस के कई बड़े नेताओं को अपने पाले में किया था.
जैसे महाराष्ट्र के पूर्व मुख्यमंत्री अशोक चव्हाण और मिलिंद देवरा को चुनाव से ठीक पहले बीजेपी में शामिल किया गया था. लेकिन बीजेपी की ये सारी रणनीति काम नहीं आई.
स्थानीय मुद्दे और क्षेत्रीय अस्मिता
यह चुनाव मोदी के इर्दगिर्द केंद्रित नहीं था. 2014 और 2019 में मोदी लहर थी.
अकेले नरेंद्र मोदी फैक्टर के कारण ही कई नए उम्मीदवार भी चुने गए. पिछले चुनाव में राज्य के मुद्दे, स्थानीय मुद्दे, स्थानीय समीकरण किसी भी तरह से प्रभावी नहीं थे.
हालांकि इस चुनाव में महाराष्ट्र में मोदी की ऐसी लहर देखने को नहीं मिली. मोदी का करिश्मा नहीं दिखा.
मोदी ने महाराष्ट्र में रिकॉर्ड रैलियां कीं लेकिन इसका नतीजों पर कोई असर नहीं पड़ा. भारतीय जनता पार्टी ने महाराष्ट्र में चुनाव को मोदी बनाम राहुल गांधी बनाने की पूरी कोशिश की.
कोल्हापुर की सभा में देवेन्द्र फड़नवीस ने सीधे तौर पर कहा कि इस क्षेत्र में यह चुनाव शाहू महाराज बनाम संजय मांडलिक नहीं, बल्कि नरेंद्र मोदी बनाम राहुल गांधी है.
बीजेपी ने चुनाव को मोदी केंद्रित बनाने की कोशिश की लेकिन उन्हें सफलता नहीं मिली.
दूसरा महत्वपूर्ण कारण यह है कि पार्टीयों को तोडना बीजेपी के विरोध मे चला गया. चाहे वह शिव सेना में फूट हो या उसके बाद एनसीपी में फूट, दोनों ही फूट से बीजेपी को कोई ख़ास फ़ायदा नहीं हुआ.
इसके विपरीत मतदाताओं में इस विभाजन को लेकर नाराज़गी देखी गई.
जिस तरीक़े से उद्धव ठाकरे की शिव सेना को कमज़ोर किया गया और शरद पवार की एनसीपी में तोड़फोड़ मचाई गई, उसे भी जनता ने स्वीकार नहीं किया. आम लोगों की सहानुभूति उद्धव और शरद पवार के साथ थी.
चुनाव प्रचार के दौरान मोदी ने ख़ुद शरद पवार और उद्धव ठाकरे की व्यक्तिगत तौर पर आलोचना की थी.
मोदी ने भटकती आत्मा, नक़ली बच्चा जैसे शब्दों का इस्तेमाल किया. लेकिन यह आलोचना पवार-ठाकरे के प्रति सहानुभूति बढ़ाने वाली साबित हुई.
पिछले कुछ महीनों से महाराष्ट्र में किसानों का ग़ुस्सा साफ़ नज़र आ रहा था. उत्तर महाराष्ट्र में प्याज का मुद्दा छाया रहा.
मराठवाड़ा और विदर्भ में कपास और सोयाबीन के मुद्दे पर चर्चा हुई. प्याज के मुद्दे को सीधे तौर पर महागठबंधन पर चोट के तौर पर देखा जा रहा था.
निर्यात प्रतिबंध के ख़िलाफ़ किसानों में भारी ग़ुस्सा था.
बीजेपी इस रोष को कम करने में ख़ास कामयाब नहीं हो पाई है. उर्वरकों की बढ़ी क़ीमतें राज्य भर के किसानों के लिए एक प्रमुख मुद्दा बन गईं.