नई दिल्ली:- मुख्यमंत्री नीतीश कुमार यूं ही नहीं 2010 के विधानसभा चुनाव परिणाम का अपना ही रिकार्ड तोड़ने की इच्छा को बार-बार दोहरा रहे हैं। संकल्प प्रकट कर रहे हैं। उस चुनाव में एनडीए को 243 में से 206 सीटें मिली थीं। बाद के दिनों में अन्य दलों के छिटपुट विधायक भी एनडीए के सहयोगी बने।
मंडल के दौर में राज्य में किसी गैर-कांग्रेसी मुख्यमंत्री को पहली बार ऐसी सफलता मिली थी।इससे पहले 1995 के विधानसभा चुनाव में लालू प्रसाद की तत्कालीन पार्टी जनता दल की 167 सीटों पर जीत हुई थी। उस समय बिहार विधानसभा के सदस्याें की संख्या 324 होती थी। बाद के चुनावों में लालू प्रसाद भी उस परिणाम को नहीं दोहरा पाए।
2010 का रिकॉर्ड क्यों तोड़ना चाहते हैं नीतीश कुमार?
2010 का परिणाम नीतीश कुमार के लिए इसलिए भी महत्वपूर्ण है क्योंकि उसमें उन्हें 2005-10 के बीच के सुशासन का इनाम मिला था। दिग्गज रामविलास पासवान अपनी लोजपा के साथ उनके विरोध में खड़े थे। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी गुजरात के मुख्यमंत्री थे और उन्हें नीतीश की भावना का सम्मान करते हुए भाजपा ने बिहार विधानसभा के चुनाव प्रचार से अलग रखा गया था।
इसके बावजूद राज्य चुनाव में एनडीए को इतनी बड़ी सफलता मिली थी। 2010 के चुनाव में नीतीश की लोकप्रियता ने राजद को सिर्फ 22 सीटों पर समेट दिया था। वह तकनीकी रूप से मुख्य विपक्षी दल का दर्जा भी हासिल नहीं कर पाया था। 225 सीटों पर जीत के लक्ष्य में राजद को पुरानी स्थिति में लौटाने का संकल्प भी है। 2010 के विधानसभा चुनाव के ठीक साल भर पहले 2009 के लोकसभा चुनाव में भी एनडीए को राज्य की 40 में से 32 सीटों पर सफलता मिली थी।
जदयू की 20 और भाजपा की 12 सीटों पर जीत हुई थी। बेशक एनडीए ने 2019 में लोकसभा की 39 सीट कर बड़ी उपलब्धि हासिल की। लेकिन, इसका श्रेय सिर्फ नीतीश कुमार को नहीं मिला। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी और रामविलास पासवान भी श्रेय के असली हकदार थे। 2019 के पांच साल बाद 2024 के लोकसभा चुनाव में एनडीए 2019 के परिणाम को नहीं दोहरा पाया। उसे 30 सीटें मिलीं। यह 2009 की 32 सीटों से कम थी, जिस चुनाव के नायक सिर्फ नीतीश कुमार थे।
2010 से 2014 के बीच बहुत कुछ बदला
2010 और 2024 की अवधि में बहुत कुछ बदला। मुख्यमंत्री की कुर्सी पर इस दौर में भी नीतीश कुमार ही हैं।मगर, उन्हें कई बार कम करके आंका गया। वह सुनियोजित साजिश के शिकार भी हुए। एनडीए में रहते हुए उसके एक घटक दल लोजपा ने 2020 के विधानसभा चुनाव में उन्हें पराजित करने का पूरा बंदोबस्त किया। उनका दल जदयू महज 43 सीटों पर अटक गया। यह नीतीश के जीवन के लिए कष्टदायक परिणाम परिणाम था। 2015 में जदयू 2010 के परिणाम को बरकरार नहीं रख पाया।
उसके सिर्फ 71 उम्मीदवार चुनाव जीत पाए। इस पृष्ठभूमि में देखें तो नीतीश कुमार अगर 2010 से भी बेहतर परिणाम का लक्ष्य लेकर चल रहे हैं तो लंबे समय तक बिहार की राजनीति के लिए अपरिहार्य रहे नीतीश कुमार जैसे किसी नेता के लिए दुस्साहस नहीं कहा जा सकता है। आखिर वह राज्य के पहले ऐसे नेता हैं, जिनसे कोई दल स्थायी दोस्ती भले न कर पाए, स्थायी दुश्मनी मोल लेने का खतरा उठाने का साहस नहीं कर पाया है। घर का एक दरवाजा हमेशा खुला रखा जाता है।