नई दिल्ली: – औरंगजेब की कब्र को लेकर नागपुर सुलग उठा। महाराष्ट्र की राजनीति में फिलहाल यही सबसे बड़ा मुद्दा है। लेकिन, यह भी सवाल है कि एक मुगल बादशाह ने अपने आखिरी सफर के लिए संभाजी नगर (पहले औरंगाबाद) को क्यों चुना और सादी-सी कब्र बनवाने की इच्छा के पीछे का सच क्या है? जवाब के लिए समझना होगा इस शहर से औरंगजेब के रिश्ते को।
शिराजी को माना गुरु
शाहजहां ने अपनी बादशाहत के दौरान सन 1636 में तीसरे बेटे औरंगजेब को सूबेदार बनाकर दौलताबाद भेजा था। औरंगजेब को लेकिन दौलताबाद रास नहीं आया और कुछ समय के बाद उसने अपना केंद्र बना लिया औरंगाबाद को। वह यहीं से शासन करने लगा। इतिहासकारों के मुताबिक, औरंगजेब को औरंगाबाद खासा पसंद आया। यहीं से वह पूरा दक्कन घूमा। यहीं उसे चिश्ती परंपरा के प्रवर्तक सैयद जैनुद्दीन दाऊद शिराजी की शिक्षाएं जानने को मिलीं। औरंगजेब ने शिराजी को अपना गुरु मान लिया।
खुल्दाबाद इसलिए चुना
शिराजी का जन्म हुआ था ईरान के शिराज शहर में। वह मक्का से होते हुए दिल्ली पहुंचे थे। वहां मौलाना कमालुद्दीन से शिक्षा लेकर उनके साथ ही दौलताबाद चले गए थे। सन 1336 में उन्हें दौलताबाद का काजी बना दिया गया। मोहम्मद बिन तुगलक ने एक वक्त शिराजी को दौलताबाद से दिल्ली जाने का फरमान सुना दिया था। वह चले भी गए, लेकिन उनका दिल दिल्ली में लगा नहीं। जब तुगलक की मौत हो गई, तो उसके वारिस फरोज शाह ने उन्हें लौटने की इजाजत दे दी। शिराजी फिर दौलताबाद चले गए। दक्कन में काफी लोगों की आस्था शिराजी में थी। औरंगजेब भी यहां रहते हुए उनकी शिक्षा के प्रभाव में आया। यह शिराजी ही थे, जिनकी वजह से औरंगजेब ने अपना अंतिम स्थान खुल्दाबाद को चुना। उस जगह के करीब, जहां शिराजी को दफनाया गया था।
बेटों को लेकर चिंता
1658 में औरंगजेब बादशाह बना। वह दिल्ली से ही सल्तनत चला रहा था, लेकिन उम्र की ढलान पर किस्मत उसे फिर वहीं ले आई, जहां से उसने अपना सियासी सफर शुरू किया था। सन 1681 में वह फिर दक्कन लौट गया। उसने अहमदनगर के किले को अपना ठिकाना बनाया। सन 1707 में वह बेहद कमजोर हो चुका था। अपने आखिरी दिनों में उसे अपने पिछले पाप याद आने लगे। उसे चिंता हुई कि जिस तरह उसने अपने भाइयों का खून बहाया है, कहीं उसके बेटे भी उसी तरह आपस में न लड़ मरें। इसलिए उसने अपनी वसीयत में बेटों के बीच उनकी रियासतों का बंटवारा कर दिया।
सादी कब्र की वजह
औरंगजेब ने अपनी वसीयत में कहा था कि उसके मकबरे पर उतनी ही रकम खर्च की जाए, जो उसने कमाई है। वह टोपियां सिलकर और कुरान की प्रतियां लिखकर यह कमाई किया करता था। उसने हिदायत भी दी थी कि उसके मकबरे पर चार रुपये दो आना ही इस्तेमाल किया जाए। यह रकम उसने अपने महलदार के पास रखवा रखी थी। उसने अपनी कब्र पर छायादार पेड़ लगाने से भी मना किया था।
कर्जन ने कराई सजावट
साल 1904-05 के दौरान ब्रिटिश हुकूमत की ओर से भारत के वायसराय और गवर्नर जनरल रहे लॉर्ड कर्जन जब औरंगजेब का मकबरा देखने गए तो इसकी सादगी और मामूलीपन देखकर आश्चर्यचकित रह गए। कर्जन के ही आदेश पर इस मकबरे के आसपास संगमरमर का काम कराया गया। ग्रिल लगवाई गई और सजावट हुई। औरंगाबाद में ही औरंगजेब ने अपनी पत्नी के लिए बीवी का मकबरा बनवाया था, जिसे दक्कन का ताज भी कहा जाता है।