National Digital Health Mission पहला सुख निरोगी काया-स्वास्थ्य और चिकित्सा के मर्म की व्याख्या करता भारतीय दर्शन का यह सूत्र हमारे जीवन में रचा-बसा है, लेकिन कोरोना काल और इससे पहले भी देश की स्वास्थ्य सेवाएं कई कारणों से सवालों के घेरे में रही हैं। खासतौर से इसलिए, क्योंकि खुद को सेहतमंद बनाए रखने और कोई बीमारी होने पर इलाज की कोशिशों को निजी मान लिया गया है। यानी अगर हम स्वस्थ रहना चाहते हैं या कोई इलाज कराना चाहते हैं तो इसमें समाज या सरकार से ज्यादा भूमिका व्यक्तिगत होती है।
शायद यही वजह है कि बीमार पड़ने पर कई लोग अपने जीवन भर की जमापूंजी तक गंवा बैठते हैं। बहुत से मामलों में तो बीमारी का पता नहीं चलने और सही इलाज नहीं मिलने पर मरीजों को अपनी जान गंवानी पड़ती है या जीवन भर कोई अपंगता ङोलनी पड़ती है, लेकिन अब ये हालात बदल सकते हैं। इसकी वजह राष्ट्रीय डिजिटल स्वास्थ्य मिशन है, जिसकी देश में हाल में शुरुआत की गई है।
इस मिशन में नागरिकों का एक डिजिटल हेल्थ कार्ड बनाया जाएगा, जिसमें उनका हेल्थ रिकार्ड यानी उनकी सेहत और बीमारी से संबंधित सभी जानकारियां डिजिटल रूप से सुरक्षित रखी जाएंगी, ताकि जरूरत पड़ने पर उन्हें देखा जा सके। इस तरह विकसित होने वाले डिजिटल इकोसिस्टम (पारिस्थितिकी तंत्र) की मदद से आम जनता को स्वास्थ्य सुविधाएं आसानी से मिल सकेंगी। इसमें भारतीय नागरिकों, स्वास्थ्य पेशेवरों, सार्वजनिक अस्पतालों के साथ-साथ निजी क्षेत्र के संस्थानों के बीच सेहत की जांच, निगरानी और स्वास्थ्य सुविधाएं मुहैया कराने वाला एक पुख्ता नेटवर्क बन सकेगा। इससे लोगों में स्वास्थ्य जागरूकता आ सकती है और बीमारियों के त्वरित एवं सटीक इलाज की व्यवस्था बन सकती है।
कोई बीमारी होने पर इलाज नहीं करवा पाने की तकलीफ वही जान सकता है, जिसे इससे जूझना पड़ता है। सवाल सिर्फ कोरोना के संक्रमण या दिल के मर्ज या कैंसर जैसी बड़ी बीमारियों और उनके महंगे इलाज एवं दवाओं की उपलब्धता का ही नहीं है, बल्कि यह भी है कि सर्दी-जुकाम जैसी आम बीमारियों का इलाज कराने और उनके लिए दवा खरीद पाने की हैसियत देश के आम तबके की नहीं है। कई बार मरीजों को तब ज्यादा कष्ट उठाना पड़ता है, जब उनकी बीमारी की सही जांच नहीं होती। इससे उन्हें सही और सस्ता इलाज नहीं मिल पाता है। यही नहीं, एक बार बीमार होने के बाद एक अस्पताल से दूसरे अस्पताल की दौड़-धूप करते मरीज और उनके तीमारदार डाक्टरों के निर्देश पर एक ही टेस्ट कई बार करवाते हैं। इसके अलावा पुरानी बीमारियों के इलाज का रिकार्ड मौजूद नहीं होने पर कई बार गलत इलाज की चपेट में भी आ जाते हैं। ऐसे में मर्ज से बड़ी समस्या उसके निदान की प्रक्रिया हो जाती है। यह तथ्य भी कई बार सामने आ चुके हैं कि देश की आबादी का एक बड़ा हिस्सा बीमारियों के इलाज में ही गरीब हुआ जा रहा है, क्योंकि अक्सर उन्हें यही नहीं पता चलता है कि आखिर उन्हें हुआ क्या है? किस बीमारी का क्या इलाज है और कहां इलाज हो सकता है? इसकी जानकारी नहीं होने पर मरीज गलत हाथों में पड़ जाते हैं। ऐसे में सही इलाज की पहली सीढ़ी मरीज और उसके तीमारदार को इसकी जानकारी मिलना है कि आखिर बीमारी क्या है या मरीज को इससे पहले क्या मर्ज था और उसका क्या इलाज था?
डाटा से आएगी नई क्रांति : आमतौर पर ऐसे सारे रिकार्ड रखने की जिम्मेदारी व्यक्तिगत मानी जाती है, लेकिन सरकार के स्तर पर महसूस किया गया कि अगर लोगों की बीमारियों का कोई डाटाबेस तैयार हो सके और संबंधित जानकारियों को एक डिजिटल कार्ड में समाहित किया जा सके तो इस क्षेत्र में क्रांतिकारी सुधार हो सकता है। भारत ऐसी व्यवस्था करने वाला दुनिया का पहला देश नहीं है, बल्कि कई अन्य देशों में ऐसी व्यवस्था पहले से मौजूद है। जैसे ब्रिटेन और दक्षिण कोरिया में डिजिटल हेल्थ रिकार्ड की व्यवस्था और अमेरिका में कायम नेशनल हेल्थ सíवस आदि का इस संबंध में अध्ययन किया गया। उल्लेखनीय है कि डिजिटल हेल्थ कार्ड जैसी योजना की प्रेरणा के पीछे एक भूमिका प्रधानमंत्री जन आरोग्य (आयुष्मान भारत) योजना की है। तीन साल पहले 25 सितंबर, 2018 को देश के 25 राज्यों में औपचारिक रूप से आयुष्मान योजना को जब लागू किया गया तो यह उम्मीद जगी थी कि अब देश के वंचित, उपेक्षित और गरीब लोगों को बीमारियों के इलाज में कोई समस्या नहीं होगी।