नई दिल्ली:– हर साल 25 दिसंबर को दुनिया भर में क्रिसमस का त्योहार धूमधाम से मनाया जाता है। इस उत्सव की सबसे बड़ी पहचान सफेद दाढ़ी और लाल-सफेद लिबास वाले सांता क्लॉस हैं। लेकिन क्या आप जानते हैं कि सांता हमेशा से लाल रंग नहीं पहनते थे? इसके पीछे सदियों पुराना इतिहास और गहरा धार्मिक महत्व छिपा है।
दिलचस्प बात यह है कि सांता क्लॉस के कपड़ों का रंग हमेशा से लाल नहीं था। 19वीं शताब्दी से पहले के यूरोपीय चित्रणों में सेंट निकोलस (सांता का मूल स्वरूप) को अक्सर हरे, नीले या भूरे रंग के बिशप के कपड़ों में दिखाया जाता था। उस समय अलग-अलग संस्कृतियों और क्षेत्रों में सांता की वेशभूषा वहां की स्थानीय परंपराओं के अनुसार बदलती रहती थी।
कोका-कोला का योगदान और आज की तस्वीर
सांता के आज के रूप को लेकर एक मशहूर धारणा है कि यह कोका-कोला कंपनी की 1930 के दशक के एक विज्ञापन अभियान की देन है। हालांकि, लाल रंग पहले से ही सांता से जुड़ा हुआ था, लेकिन कोका-कोला के कलाकार हैडन सन्डब्लॉम ने सांता की इस ‘खुशमिजाज और गोल-मटोल’ छवि को लाल-सफेद कपड़ों के साथ पूरी दुनिया में लोकप्रिय बनाया। 20वीं शताब्दी में मीडिया और वैश्वीकरण (Globalization) के कारण सांता की यही छवि सर्वव्यापी हो गई।
रंगों का धार्मिक और आध्यात्मिक संदेश
ईसाई धर्म में लाल रंग को अत्यंत पवित्र और विशेष माना जाता है। यह रंग यीशु मसीह के त्याग, बलिदान और मानवता के उद्धार के लिए बहाए गए उनके रक्त का प्रतीक है। लाल रंग निस्वार्थ प्रेम, करुणा और आध्यात्मिक शक्ति को भी दर्शाता है। इसी कारण चर्चों में पादरी अक्सर विशेष धार्मिक अवसरों पर लाल वस्त्र धारण करते हैं। वहीं, सांता के कपड़ों में मौजूद सफेद रंग शांति, पवित्रता और सर्दियों की बर्फ का प्रतीक माना जाता है।
उत्सव और सजावट में लाल रंग की धमक
क्रिसमस के दौरान केवल सांता ही नहीं, बल्कि चर्चों, घरों और बाजारों में भी लाल रंग छाया रहता है। क्रिसमस ट्री की सजावट, रिबन, मोमबत्तियां और गिफ्ट रैपिंग में लाल रंग का अधिक उपयोग किया जाता है। यह रंग न केवल उत्सव को जीवंत बनाता है, बल्कि लोगों को यीशु के प्रेम और भाईचारे के संदेश की याद भी दिलाता है। इस प्रकार, सांता का यह लिबास इतिहास, संस्कृति और विश्वास का एक सुंदर मिश्रण है।
